श्रीकृष्णनाम और पारस पत्थर……..

By heygobind Date January 28, 2019

गौड़ देश में एक ब्राह्मण निर्धनता के कारण बहुत दु:खी था। जहां कहीं भी वह सहायता मांगने जाता जगह उसे तिरस्कार मिलता। वह ब्राह्मण शास्त्रों को जानने वाला व स्वाभिमानी था। उसने संकल्प किया कि जिस थोड़े से धन व स्वर्ण के कारण धनी लोग उसका तिरस्कार करते हैं, वह उस स्वर्ण को मूल्यहीन कर देगा। वह अपने तप से पारस प्राप्त करेगा और सोने की ढेरियां लगा देगा। लेकिन उसने सोचा कि ‘पारस मिलेगा कहां ? ढूँढ़ने से तो वह मिलने से रहा। कौन देगा उसे पारस ? देवता तो स्वयं लक्ष्मी के दास हैं, वे उसे क्या पारस देगें ?’ ब्राह्मण ने भगवान औघड़दानी शिव की शरण में जाने का निश्चय किया— ‘जो विश्व को विभूति देकर स्वयं भस्मांगराग लगाते हैं; वे कपाली ही कृपा करें तो पारस प्राप्त हो सकता है।’ ब्राह्मण ने निरन्तर भगवान शिव का रुद्रार्चन, पंचाक्षर-मन्त्र का जप और कठिन व्रत करना शुरु कर दिया। आखिर भगवान आशुतोष कब तक संतुष्ट नहीं होते! ब्राह्मण की बारह वर्ष की तपस्या सफल हुई। भगवान शिव ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा— ‘तुम वृन्दावन में श्रीसनातन गोस्वामी के पास जाओ। उनके पास पारस है और वे तुम्हें दे देंगे।’ ‘श्रीसनातन गोस्वामी के पास पारस है, और वे उस महान रत्न को मुझे दे देंगे। भगवान शंकर ने कहा है तो वे अवश्य दे देंगें’— ऐसा सोचते हुए ब्राह्मण वृन्दावन की ओर चला जा रहा था। खुशी के मारे यात्रा की थकान व नींद उससे कोसों दूर चली गयी थी। वृन्दावन पहुंचने पर उसने लोगों से श्रीसनातन गोस्वामी का पता पूछा। लोगों ने वृक्ष के नीचे बैठे अत्यन्त कृशकाय (दुर्बल), कौपीनधारी, गुदड़ी रखने वाले वृद्ध को श्रीसनातन गोस्वामी बतलाया। (चैतन्य महाप्रभुजी के शिष्य सनातन गोस्वामी वृन्दावन में वृक्ष के नीचे रहते थे, भीख मांगकर रूखी-सूखी खाते, फटी लंगोटी पहनते और गुदड़ी व करवा साथ में रखते थे। आठ प्रहर में केवल चार घड़ी सोते और शेष समय श्रीकृष्णनाम का कीर्तन करते थे। एक समय वे विद्या, पद, ऐश्वर्य और मान में लिप्त थे, बंगाल के कर्ता-धर्ता थे, किन्तु श्रीकृष्णकृपा से श्रीकृष्णप्रेम की मादकता से ऐसे दीन बन गये कि परम वैरागी बनकर वृन्दावन से ही गोलोक पधार गए।) ब्राह्मण ने मन में कहा— ‘यह कंगाल सनातन गोस्वामी है, ऐसे व्यक्ति के पास पारस होने की आशा कैसे की जा सकती है; लेकिन इतनी दूर आया हूँ तो पूछ ही लेता हूँ, पूछने में क्या जाता है ?’ ब्राह्मण ने जब श्रीसनातन गोस्वामी से पारस के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा—‘इस समय तो मेरे पास नहीं है, मैं उसका क्या करता ? क्योंकि—श्रीसनातन गोस्वामी ने बताया कि एक दिन मैं यमुनास्नान को जा रहा था तो रास्ते में पारस पत्थर पैर से टकरा गया। मैंने उसे वहीं यमुनाजी की रेत में गाड़ दिया जिससे किसी दिन यमुनास्नान से लौटते समय वह मुझे छू न जाए; क्योंकि उसे छूकर तो पुन: स्नान करना पड़ता है। तुम्हें चाहिए तो तुम उसे वहां से निकाल लो।’ (कंचन, कामिनी (सोना, स्त्री आदि) भगवान की विस्मृति कराने वाले हैं इसलिए सच्चे संत पारस के छू जाने भर को अपवित्र मानते हैं) श्रीसनातन गोस्वामी ने जहां पारस गड़ा हुआ था, उस स्थान का पता ब्राह्मण को बतला दिया। रेत हटाने पर ब्राह्मण को पारस मिल गया। पारस की परीक्षा करने के लिए ब्राह्मण लोहे का एक टुकड़ा अपने साथ लाया था। जैसे ही ब्राह्मण ने लोहे को पारस से स्पर्श किया वह स्वर्ण हो गया। पारस सही मिला है, इससे अत्यन्त प्रसन्न होकर ब्राह्मण अपने गांव की ओर लौट दिया। तभी ब्राह्मण के मन में एक प्रश्न कौंधा— ‘उस संत के पास तो यह पारस था फिर भी उसने इसे अपने पास नहीं रखा; बल्कि यह कहा कि अगर यह छू भी जाए तो उन्हें स्नान करना पड़ता है। अवश्य ही उनके पास पारस से भी अधिक कोई मूल्यवान वस्तु है।’‘श्रीकृष्णनाम’ है कल्पतरु ब्राह्मण लौटकर श्रीसनातन गोस्वामी के पास आया और बोला— ‘अवश्य ही आपके पास पारस से भी अधिक मूल्यवान वस्तु है जिसके कारण आपने उसे त्याग दिया।’ ब्राह्मण को देखकर हंसते हुए श्रीसनातन गोस्वामी ने कहा— ‘पारस से बढ़कर श्रीकृष्णनाम रूपी कल्पवृक्ष मेरे पास है।’ पारस से तो केवल सोना ही मिलता है किन्तु श्रीकृष्णनाम सब कुछ देने वाला कल्पवृक्ष है, उससे आप जो चाहेंगे, वह प्राप्त होगा। ऐसा कोई कार्य नहीं जो भगवान के नाम के आश्रय लेने पर न हो। मुक्ति चाहोगे, मुक्ति मिलेगी; परमानन्द चाहोगे, परमानन्द मिलेगा; व्रजरस चाहोगे व्रजरस मिलेगा। श्रीकृष्ण का एक नाम सब पापों का नाश करता है, भक्ति का उदय करता है, भवसागर से पार करता है और अंत में श्रीकृष्ण की प्राप्ति करा देता है। एक ‘कृष्ण’ नाम से इतना धन मिलता है। यह सुनकर ब्राह्मण ने सनातन गोस्वामीजी से विनती की— ‘मुझे आप वही श्रीकृष्णनाम रूपी पारस प्रदान करने की कृपा करें।’ श्रीसनातन गोस्वामी ने कहा—‘उसकी प्राप्ति से पहले आपको इस पारस को यमुना में फेंकना पड़ेगा।’ ब्राह्मण ने ‘यह गया पारस’ कहते हुए पूरी शक्ति से पारस को यमुना में दूर फेंक दिया। भगवान शिव की दीर्घकालीन तपस्या व संत के दर्शन से ब्राह्मण के मन व चित्त निर्मल हो गए थे। उसका धन का मोह समाप्त हो गया और वह भगवान की कृपा का पात्र बन गया। श्रीसनातन गोस्वामी ने उसे ‘श्रीकृष्णनाम’ की दीक्षा दी—वह ‘श्रीकृष्णनाम’ जिसकी कृपा के एक कण से करोड़ों पारस बन जाते हैं। नाम रूपी पारस से तो सारा शरीर ही कंचन का हो जाता है — ‘जो मेरे नामों का गान करके मेरे समीप प्रेम से रो उठते हैं, उनका मैं खरीदा हुआ गुलाम हूँ; यह जनार्दन दूसरे किसी के हाथ नहीं बिका है।’ जिसने एक बार श्रीकृष्णनाम का स्वाद ले लिया उसे फिर अन्य सारे स्वाद रसहीन लगने लगते हैं। भवसागर से डूबते हुए प्राणी के लिए वह नौका है। मोक्ष चाहने वाले के लिए वह सच्चा मित्र है, मनुष्य को परमात्मा से मिलाने वाला सच्चा गुरु है, अंत:करण की मलिन वासनाओं के नाश के लिए दिव्य औषधि है। यह मनुष्य को ‘शुक’ से ‘शुकदेव’ बना देता है।

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