दक्षिणशेवर में एक दिन श्रीरामकृष्ण अपने एक सरल परंतु वादप्रिय स्वभाव वाले शिष्य को कोई बात समझा रहे थे पर उसकी विचार शक्ति में वो बात नहीं आ रही थी और वो विवाद कर रहा था। श्रीरामकृष्ण के तीन चार बार समझाने पर भी जब उसका तर्क और वाद विवाद बंद नहीं हुआ, तब कुछ क्रुद्ध होकर परंतु मीठे शब्द में बोले "तू कैसा व्यक्ति है रे ? मै जब स्वयं कहता हूँ तो भी तुझे निश्चय नहीं होता? तब उस शिष्य का गुरुप्रेम जाग्रत हो गया और लज्जित हो कर कहा "स्वामी जी मुझसे भूल हो गई, जब आप खुद मुझको समझा रहे हो और मै न मानु यह कैसे हो सकता है? इतनी देर तक मै अपनी विचारशक्ति के बल पर व्यर्थ वाद कर रहा था। इसको सुनकर प्रसन्न होकर हँसते हुए स्वामी जी ने कहा "गुरु के प्रति भक्ति कैसे होनी चाहये बताऊँ ? गुरु जैसा कहे वैसा ही तुरुन्त दिखने लग जाये। ऐसी भक्ति अर्जुन की थी। एक दिन रथ में बैठकर अर्जुन के साथ श्रीकृष्ण योंही घूम रहे थे एकदम आकाश को देखकर श्रीकृष्ण बोले "अर्जुन यह देखो कैसा सूंदर कपोत उड़ता जा रहा है! आकाश की और देखकर अर्जुन तुरंत बोला "हाँ महाराज, यह कैसा सूंदर कपोत है! परंतु पुनः फिर श्रीकृष्ण ऊपर की ओर देखकर बोले "नहीं नहीं अर्जुन यह तो कोई नहीं कपोत है। अर्जुन पुनः ऊपर देककर बोले "हाँ सचमुच, प्रभो यह तो कपोत नहीं मालूम पड़ता! अब इतना ध्यान में रख की अर्जुन बड़ा ही सत्यनिष्ठ था, व्यर्थ श्रीकृष्ण जी की चापलूसी करने के लिए उसने ऐसा नहीं कहा, परंतु श्रीकृष्ण के वाक्य पर उसकी इतनी भक्ति और श्रदा थी की जैसा कहा बिलकुल वैसा ही अर्जुन को दिखने लगा"
यह ईश्वरी शक्ति सभी मनुष्यों के मन में कम या अधिक रहती है। इसलिए हमें गुरु के वचन पर विश्वास करना चाहिए।