श्री कर्मानंद जी चारण कुल में उत्पन्न एक श्रेष्ठ भक्त थे,वे अपने मधुर गायन से प्रभु की सेवा करते थे।आपका गायन इतना भाव पूर्ण होता था कि उसे सुनकर पाषाण ह्रदय भी पिघल जाता था।आप गृहस्थ भक्त थे,परन्तु गृहस्थी उन्हें अधिक दिनों तक रास नहीं आयी और एक दिन वो सव कुछ छोड़ कर तीर्थो में भ्रमण के लिए निकल पड़े।साधन सामग्री के नाम पर उनके पास एक घडी और एक झोली जिसमे ठाकुर जी को पधरा कर गले में लटकाते थे।आप कही भी विश्राम करने के लिए रुकते तो अपनी छड़ी को जमीन में गाड़ देते और अपनी झोली को उस पर लटका देते इससे ठाकुर जी को झूला झूलने का सुख मिल जाता और उन्हें भी ठाकुर जी को झूला झुलाने का सुख मिल जाता।
एक दिन आप सुबह पूजा अर्चना करके ठाकुर जी को गले में लटका के चल दिए और छड़ी को भूल गए।जब विश्राम के लिये अगली जगह रुके तो छड़ी याद आई अब ठाकुर जी की झूला सेवा कैसे हो ।वे वहुत ही दुखी हुए और उन्हें ठाकुर जी पर प्रेम की अधिकता के कारण रोष भी हुआ,उन्होंने कहा हम तो जीव हैं भूल करना हमारा स्वभाव है,पर आपको तो मुझे याद कराना चाहिए था,अब हम चार कोस दूर आ गए बापस जाए तो भी छड़ी मिले या ना मिले कोई लेकर चला गया हो।कर्मा नन्द जी इतना बोल कर बहुत ही उदास हो गये।मेरे गोविन्द तो जैसे अपने भक्त के इन्ही भावो सुनना चाहते थे करमानंदजी की डांट फटकार से और भी रीझ गये।प्रभु की प्रेरणा से तुरंत योग माया द्वारा वह छड़ी वाही आ गयी ऐसा लगा ठाकुर जी छड़ी खुद उखाड़ लाये हो।ये देखकर कर्मानंद जी की आँखों से आंसुओ की धारा उमड़ पड़ी ,उन्होंने प्रभु से अपने कठोर शब्दों के लिए छमा मांगी।प्रभु ने कहा जब हम और तू दो ही है तो कुछ कहने सुनने लड़ने झगड़ने की इच्छा हुई तो कहाँ जायेगे आपस में ही तो लड़ेंगे ,में तेरी सेवा से प्रसन्न हूँ।।श्री राधे राध🌺🌷🌺🌷www.heygobind.com 🌷🌺🌷🌺