ठण्ड के दिन थे, कड़ाके की सर्दी पड़ रखी थी। पूरा बंगाल प्रदेश इस ठण्ड की चपेट में बुरी तरह आ चूका था। कोई भी अपने घर से बाहर नहीं निकल रहा था। चारो ओर ठण्ड के कारण सभी अपने घर में थे।
उसी समय एक भिखारिन भीख मांग रही थी। सभी के दरवाजे बंद थे लेकिन भिखारिन एक एक कदम रख कर हर घर पर जा रही थी। उसकी गोद में एक नन्हा बच्चा भी था जोकि ठण्ड से ठिठुर रहा था। कोई भी दरवाज़ा नहीं खुल रहा था। तभी एक दरवाज़ा खुला। भिखारिन ने अपना दुःख दर्द उस औरत को दोहराया। उस औरत ने उसको भोजन दिया। भिखारिन ने उससे कुछ पुराने कपडे के मांग की।
उन्ह दिनों उस घर की कोई अच्छी हालत नहीं थी। वह एक विधवा महिला का घर था। वह मन ही मन सोचने लगी की अब मै इस भिखारिन को क्या दूँ।
तभी एक ठंडी हवा का झोंका आया और उस भिखारिन का नन्हा से बच्चा काँफ उठा। उस विधवा महिला से ये नहीं देखा गया। उसने उसी समय अपने घर का एकमात्र कम्बल उस भिखारिन को दे दिया।
भिखारिन ने उसको खूब सारी दुआएँ देती हुई अपने घर को चली गई लेकिन कम्बल देने के कारण उस विधवा महिला को अपने बच्चे को सूती के कपड़ो में लपेटकर रखना पड़ा। और वह स्वयं चूल्हे के पास रातभर काँपती हुई बैठी रही।
ये विधवा महिला कोई और नहीं बल्कि भारत के महान विद्वान ईश्वरचंद्र विद्यासागर की माताजी थी। ऐसी परोपकारी और परदुःखकातर माँ की कोख से पैदा होने वाला कोई साधारण नहीं हो सकता था। उनकी माताजी के गुण ही ईश्वरचंद्र विद्यासागर में समा गए क्योंकि उनको बचपन से इतने बढ़िया संस्कार मिल गये।