मै जानता हूँ कि तू एक स्त्री हैं। लेकिन मै किसी भी शत्रुओं से भी इतना नही डरता जितना तुम से"
भावनगर जोकि गुजरात में हैं। उस भावनगर में एक ऐसा डाकू था जिससे उसका राजा भी कांपता था, उस डाकू का नाम था जोगीदास खुमाण।
एक रात्रि को जब डाकू अकेला और हल्की नींद में था, चारो और चांदनी ही चांदनी थी। अर्धरात्रि हो रखी थी।
तभी डाकू क्या देखता हैं कि एक नवयौवना सुंदरी सोलह श्रृंगार से सजी धजी उसके पास आ रही थी।
डाकू ने कहा "चुपचाप खड़ी रहो, तुम कौन हो?"
उस युवती ने अपनी बाँहें पसारती हुई बड़े ही प्यार से बोली "हे प्रिय मै तेरी वीरता पर मंत्रमुग्ध हूँ। आप मुझे अपना बना लो और यदि सदैव के लिये नही तो केवल आज रात्रि के लिए ही सही मुझे अपनी भुजाओं में ले लो।"
जोगीदास बहुत ही गरजते हुए बोलाः "खबरदार उधर ही खड़ी रह। तू रूपवान स्त्री है, यह मैं भलीभांति जानता हूँ। पर तुम्हे पता होना चाहिए कि मै शत्रुओं से भी इतना नहीं डरता, जितना इन्ह विकारों से चौंकता हूँ।"
उस युवती ने कहा "मै तो आपको मन ही मन अपना पति मान चुकी हूँ।"
डाकू जोगीदासः "हे सुन्दरी आपने चाहे जो भी माना हो पर मै किसी भी प्रकार आपकी बातो में नहीं आऊंगा । मुझे अपने सत्यानाश नहीं करना । आप जैसे आये हो वैसे ही चले जाओ।'
वह सुंदर युवती फिर से नाज नखरे करके उसको रिझाने लगी, तब डाकू जोगीदास ने कहा "आप मेरी बहन जैसी हो। इसलिए आपसे मेरी प्रार्थना हैं की आप अपने इस भाई को इन विकारों में गिराने की चेष्टा न करो। और यहाँ से चली जाओ।" और किसी प्रकार उस डाकू ने उस युवती को समझा बुझाकर उधर से भेजा।
उस दिन के बाद से जोगीदास कभी भी अकेला नही सोया। और अपने साथ दो-दो अंगरक्षक रखने लगा। उसको किसी का भय नहीं था, भय था तो केवल इसका की कोई उसका चरित्र भंग न कर दे, और वो इस भय को हमेशा रखता था।
एक बार जोगीदास कहीं पर जा रहा था। जब वो किसी गाँव के सुनसान स्थान पर एक युवती को काम करते देखा तो जोगीदास ने उस लड़की से पूछा:-
"हे लड़की तुम ऐसे सन्नाटे में क्यों अकेली काम कर रही है, क्या तुमको अपने शीलभंग (चरित्रभंग) का डर नहीं लगता?"
तब उस लड़की ने अपने हँसिया को सँभालते हुए और डाकू जोगीदास को आँखे दिखाते हुए बहुत ही कड़क स्वर में कहाः "डर और वो भी मुझको भला क्यों लगे ? जब तक हमारे भैया जोगीदास जी जीवित है, तब तक आसपास के पचास गाँवों की बहू बेटियों को किसी का भी डर नहीं ।"
उस लड़की को पता भी नहीं था कि सामने वो ही जोगीदास है। जोगीदास को बहुत ही आत्मसंतोष हुआ कि मेरे चरित्र के कारण ' आज पचास गाँवों की बहू बेटियों को तसल्ली है कि हमारा भैया जोगीदास है।'
बहुत से डाकुओं में भी संयम होता है और वो बुरे कार्य के पश्चात भी इस सदगुण के कारण वे इतने स्नेहपात्र हो सकते हैं तो आप जैसे सज्जन का यह संयम उस परमेश्वर से भी मिलाने में सहायक हो सकता हैं, इसमें क्या आश्चर्य ! आपका ब्रह्मचर्य सिंह जैसा बल भर देता है और आपको परमपद उस ईश्वर से एकरूप करा देता हैं.