|| जानिये जबहिं जीव जग जागा ||
मुक्ति होती नहीं है अपितु मुक्ति तो स्वत:सिद्ध है !
उस मुक्ति को हमें पहिचानना है !
जैसे हमने स्वप्न में देखा कि एक बूढा आदमी गाय को लेकर आया | गाय ने एक बछडे को जन्म दिया | तो साठ बर्ष का आदमी , आठ बर्ष की गाय और दो दिन का बछडा - तीनों एक साथ पैदा हुए ! ऐसे ही यह सब संसार है !
जैसे स्वप्न हमारे अन्तर्गत था , ऐसे ही संसार हमारे अन्तर्गत है !
आँख खुलते ही सब स्वप्न गायब !
अत: हम सब मुक्त है , कोई बन्धन में नहीं है | केवल स्वप्नरूप , असतरूप जगत को महत्ता देने से नित्यप्राप्त परमात्मा की अप्राप्ति एवं भ्रमरूप , स्वप्नरूप जगत की प्राप्ति भासित होती है !
केवल इस बात की तरफ ख्याल करना है !
* स्वप्नेहु होय भिखारि नृप नाक रंकपति होय |
जागे हानि न लाभ कछु तिमि प्रपंच जिमि सोय ||
(संत तुलसीदास जी महाराज )
* मोह निशा सब सोवनहारा | देखहिं स्वप्न अनेक प्रकारा ||
( संत तुलसीदास जी महाराज )
* उमा कहहुँ मैं अनुभव अपना |
सत हरि भजन जगत सब स्वप्ना ||
( भगवान भोलेनाथ )
* अत: इस मोहरूप स्वाप्निक जगत से जगकर अपने नित्य परमात्म स्वरूप को प्राप्त करने के लिये हमें आवश्यक है कि हम इस मायिक अभावरूप स्वाप्निक जगत को भगवान से अलग स्वतंत्र सत्ता देकर भोग्यरूप में स्वीकार न करें अपितु जगत को भगवतरूप जानकर उन स्वकीय परमात्मा से अनन्य प्रेम करें तो हमें निश्चितरूप से स्वप्नरूप भ्रम की निवृति होकर सत्यस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति होगी !
रामचरित मानस में संत तुलसीदास जी महाराज कहते हैं -
जानिये जबहिं जीव जग जागा |
जब सब विषय विलास विरागा ||
होई विवेक मोह भ्रम भागा |
तब रघुनाथ चरन अनुरागा ||