अरुणोदय की बेला में प्रतिदिन एक साथ भगवान् के गुण को गाती हुई गोपियों का समूह श्री यमुनाजी में स्नान करने गयी. उन्होंने मार्गशीर्ष के शुभ मास में कात्यायानी का व्रत किया और उसकी मिटटी के मूर्ति बनाकर षोडशपचार से उसकी पूजा करने लगी. एक दिन वो गोपियाँ अपने वस्त्र यमुनाजी के किनारे रखकर उनके जल में प्रविष्ट हुई और दोनों हाथों से जल उलीचकर एक दूसरी को भिगोती हुई जलविहार करने लगी. प्रातः काल भगवान् श्यामसुंदर वहां आये और उन सब के वस्त्र लेकर कदम्ब के पेड़ में चढ़ गए और चोर के तरह चुपचाप बैठ गए.
अपने वस्त्र को न देखकर वे गोप कन्याए बड़े ही विस्मय में पड़ गयी और हंसने लगी. तब वृक्ष पर बैठे हुए श्री कृष्ण ने उन्ह गोपियों से कहा “तुम सब यहाँ आकर अपने अपने वस्त्र ले जाओ अन्यथा मै नहीं दूंगा. तब वे गोप्कन्याये शीतल जल के भीतर होकर लज्जा से मुहं नीचे करके बोली “हे मनोहर नंदनंदन! हे गोप रत्न, हे नूतन हंस! हे महान पीड़ा को हरने वाले श्री श्याम सुंदर! तुम जो आज्ञा दोगे वही करेंगे. तुम्हारी दासी होकर हम कैसे वस्त्रहीन रहे. आप गोपियों के वस्त्र लूटनेवाले और माखनचोर हो. ब्रज में जन्म लेकर भी बड़े ही रसिक हो. हमारे वस्त्र हमको लौटा दीजिये नहीं तो हम मथुरा नरेश के दरबार में आपके द्वारा इस अवसर पर की गयी बड़ी भारी अनीति की शिकायत करेंगे.
श्री भगवान् बोले “ सुंदर मनधास्यसे सुशोभित होनेवाली गोपियाँ यदि तुम मेरी दासी हो तो इस कदम्ब के जड़ के पास आकर अपने वस्त्र ले जाओ. नहीं तो मै in सब वस्त्रो को अपने घर उठा के ले जाऊँगा. अत तुम अविलम्ब मेरे कथनानुसार कार्य करो.
श्री नारदजी कहते हैं “ राजन! तब वे सब व्रजवासानी गोपियाँ अत्यंत कांपती हुई जल से बाहर निकली और हाथो से अपने शरीर को ढककर शीत से कांपते हुए श्रीकृष्ण के हाथ से दिए गए वस्त्र लेकर उन्होंने अपने अंगो में धारण किया. इसके बाद श्रीकृष्ण को लजीली आँखों से देखती हुई वहां मोहित हो खडी रही. उनके परम प्रेमसुचक अभिप्राय को जानकर मंद-मंद मुस्कारते हुए श्यामसुंदर श्रीकृष्ण उनपर चारो ओर से दृष्टिपात करके इस प्रकार बोले
श्री भगवान् बोले “व्रजवासानी गोपियाँ! तुमने मार्गशीर्ष मास में मेरी प्राप्ति के लिए जो कात्यायानी व्रत किया हैं, वह अवश्य सफल होगा – इसमें कोई सशय नहीं है. परसों दिन में वन में भीतर यमुना के मनोहर तट पर मै तुम्हारे साथ रास करूँगा, जो तुम्हारा मनोरथ को पूर्ण करनेवाला होगा.
यों कहकर परिपुर्नतम श्रीहरि जब चले गए, तब आन्दोलास से परिपूर्ण हो मंदहास की छठा बेखेरती हुई वे समस्त गोप बालाएं अपने घरो को चली गयी.