घनश्याम मनमोहन सवाँरे| उस प्रभु को क्या कहे, घनश्याम मनमोहन सवाँरे की प्रेम की कैसी कैसी अद्भुत रहस्यमयी लीला कथाएं।

By heygobind Date January 28, 2019

उस प्रभु को क्या कहे, घनश्याम मनमोहन सवाँरे की प्रेम की कैसी कैसी अद्भुत रहस्यमयी लीला कथाएं। शरद की रात्रि को श्री यमुना पुलिन पर वंशीवादन के त्रैलोक्य मोहिनी स्वरों से गोपियों को उनका चिरप्रतीक्षित अभीप्सित वर देने के लिये स्वयंही बुला रहे है और जब वे पगली बावरी, बेसुधसी दौड़ी आती हैं तो घनश्याम उनको कहते है कि यहाँ क्यों आयी हो ? अच्छे भले घरों की कुल वधुओं को यह तो शोभा नहीं देता जाओ और लौट जाओ ! उन्ह गोपियों का एक तो ही लक्ष्य है जो उसके सिवाय किसी को देखती भी नहीं थी। वो तो अपने सारे काम काज इसलिये करती थी कि प्रभुजी को सुख मिले। जो सजना श्रृंगार भी इसलिये करती थी कि उनका सांवरा प्रसन्न हो जाय। वो तो कहती है कि -" बावरी वे अँखियाँ जरि जायँ जो साँवरो छाड़ि निहारति गोरो । धोखेहु दूसरो नाम कढ़े रसना मुख काढ़ि हलाहल बौरों॥ अतार्थ वे आँखें जल जाय जो अपने सांवरे सलोने ब्रज राजकुमार के सिवाय दूसरे को देखती हैं। और यदि धोखे से भी जिहवासे कोई दूसरा नाम निकल जाये तो उस जिहवा को मुँह से निकालकर विष में डुबो दें। गोपियों की ऐसी अनन्य भक्ति की आचार्य गोपियों को वह धर्म सिखाते हैं। चिर प्रतीक्षीत अभिलाषापूर्ण करने से पहले गोपियों की अंतिम परीक्षा लेने से भी नहीं चूकते और उधर दूसरी ओर हमारे प्रभु प्राणहरनेवाली बाल घातिनी पूतना के नन्दभवन में आते ही वह अदभुत मुस्कान बिखेरते हुए अपने नेत्र बंद कर लेते हैं। जब पूतना उनको पालने में से निकालती तो कान्हा मुस्कराते हैं, कोई भी प्रतिकार नहीं कोई भी शब्द नहीं ऐसा लगता है मानो उसकी ही तो प्रतीक्षा थी। शब्द भी कही लीला में व्यवधान न करे सो मौन, प्रफ़ुल्लित! मैया आयी है, बहुत दूर से, काफी अभिलाषा लिये। नन्द के लाल को स्तन पान कराना जो है। नन्द लाल तो सुबह से ही सजे धजे तैयार पालने में पड़े हुए है! कब आवेगी । बड़ी देर कर दी आन मईया! पूतना ने जब अपनी गोद में लेकर आँचल से ढकते हुए प्रभु के श्रीमुख में अपना स्तन दे दिया तो वे ऐसे पी रहे हैं कि जैसे उनको अमृत मिल गया हो। उन्हें तो पूतना की इच्छा पूरी करनी है सो वे विष लगे स्तन से अपना श्रीमुख हटाते ही नहीं ! कुभाव से ही आयी ! आयी तो धात्री बनकर ! अभिलाषा कैसे पूरी न होती ! नन्द लाल तो पूतना से ऐसे चिपके कि अब छुड़ाने से भी उसका स्तन को नहीं छोड़ते। पूतना चित्कार रही है छोड़ दे! छोड़ दे !" पर वह भला प्रभुजी अब कैसे छोड़ दे । वो पहले तो पकड़ता नही और अब पकड़ लिया तो बिना कोई कल्याण किये छोड़ता ही नहीं। पूतना की देह तो शांत हो गयी और प्रभु फ़िर भी उसके वक्षस्थल पर मुस्कराते हुए खेल रहे है! कौन है जो ऐसे नन्दनन्दन पर मोहित, मुग्ध न हो जाये, और अपने आप को न्यौछावर न कर दे। गोपियाँ और ब्रजवासी उसके लिये यूँ ही बावरे नहीं हैं।

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