मनुष्य जीवन के समय को अमूल्य समझकर उत्तम से-उत्तम कार्य में व्यतीत करना चाहिए। एक पल भी व्यर्थ नहीं बिताना चाहिये।
यदि किसी कारण से कभी कोई पल भगवत चिंतनके बिना बीत जाय तो उस पल के लिए पुत्र शोक से भी बढ़कर घोर पश्चाताप करना चाहिये पुरे मन से, जिससे फिर कभी ऐसी भूल न हो पाय।
जिसका समय व्यर्थ हो जाता है, उसने शायद समय का मूल्य समझा ही नहीं।
मनुष्य को कभी निकम्मा नहीं होना चाहिये, अपितु सदा सर्वदा उत्तम से उत्तम कार्य करते रहना चाहिये ।
मनसे श्री नारायण का चिंतन, वाणी से प्रभु के नाम का जप, सबको नारायण समझकर शरीर से जगज्जनार्दन की नि:स्वार्थ भाव से सेवा यही उत्तम-से-उत्तम कर्म है ।
बोलने के समय सत्य प्रिय मिट और हितभरे शास्त्रानुकूल वचन बोलने चाहिये।
अपने दोषों को सुनकर चित्त में बहुत प्रसन्नता होनी चाहिये।
यदि कोई हमारा दोष हमको बताये तो उसके लिए जहाँ तक हो, यदि हम गलत हो तो उसके लिए सफाई नहीं देनी चाहिये, क्योंकि सफाई देने से दोषों की जड़ जमती रहती है तथा दोष बतलानेवाले के चित्त में भविष्य के लिए रूकावट हो जाती है । इससे हम निर्दोष नहीं बन पाते।
दोष बताने वाले को अपने गुरुतुल्य आदर करना चाहिये, जिससे भविष्य में उसे हमारे दोष बताने में उत्साह हो।